आनंद
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मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर में,
जब हम शीश झुकाते हैं|
अपने भीतर के ईश्वर को,
फिर भूल किसलिए जाते हैं?
ईश्वर की पूजा करते हैं,
ईश्वर क्या है यह पता नहीं|
अपनी इच्छा मनवाते हैं,
उसकी इच्छा का पता नही,
हर जीवन उसको प्यारा है,
हम जिसको रोज मिटाते हैं|
अपने भीतर के ईश्वर को,
फिर भूल किसलिए जाते हैं?
सब जीव उसी ने बनाया है,
कण-कण में वही समाया है|
चीटी से लेकर हाथी तक,
में उसका रूप समाया है||
हे! अज्ञानी मानव, आखिर क्यों,
जीवन से खेल रचाते हो?
अपने भीतर के ईश्वर को,
फिर भूल किसलिए जाते हो?
हमने तो स्वयं ही,
अपना बाँट कराया है|
भाई को भाई के हाथों,
हमने ही तो मरवाया है||
इस धर्म-जाति के कारण क्यों,
घर में ही आग लगाते हो?
अपने भीतर के ईश्वर को,
फिर भूल किसलिए जाते हो?
तेज पाल सिंह
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