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कुछ जल रहा है |

आनंद
आनंद
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सुबह सुबह पत्नी की आवाज़ आई,

देखो! कुछ जल रहा है |

मैंने कहा,

तुम्हारी नाक तो बड़ी तेज है,

यह देखो, अख़बार का पहला पेज है |

कश्मीर जल रहा है, आसाम जल रहा है,

यत्र-तत्र ही नहीं अपितु सर्वत्र,

सारा हिंदुस्तान जल रहा है ||

और तुम्हे कुछ जलने का,

अहसास हो रहा है?

खैर, तुम्हे अहसास तो हुआ,

इस जलन ने तुम्हारे दिल को तो छुआ |

एक वो हैं जो इसकी आँच में,

अपने हाथ सेंक रहे हैं |

एक वो भी हैं जो इसमें,

और लकड़ियाँ फेंक रहे हैं ||

क्या उन्हें नहीं पता,

कि आग में घी नहीं डाला करते|

शीशे के घरों में रह कर,

दूसरे घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते||

खैर, वो तो गैर हैं,

उनका तो काम ही ऐसा है |

लेकिन क्या कभी हमने,

अपने गिरेबान में भी देखा है?

आखिर हम भी तो कहीं न कहीं,

जुड़े हैं इस आग से |

हमारा भी तो कुछ रिश्ता है,

इस उजड़े हुए बाग से ||

हमने क्या नहीं किया,

सब कुछ तो हमने ही किया |

“हमीं ने आग लगाई, हमीं तमाशबीन हैं |

बाँटने वाले हम ही हैं, हमीं तो वो ज़मीन हैं ||”

कुछ जल रहा है |

तेज पाल सिंह


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